लखनऊ लोकप्रियता मोटा पैसा के चक्कर मे भक्ति की तार-तार जो कतई सहन योग्य नही
लखनऊ लोकप्रियता मोटा पैसा के चक्कर मे भक्ति की तार-तार जो कतई सहन योग्य नही
अदिती न्यूज श्री न्यूज 24 पोर्टल यूट्यूब चैनल लखनऊ रायबरेली
पत्रकार प्रवीण सैनी लखनऊ
एक सीधा सा सवाल है लंका तो हनुमान जला आए थे फिर राजतिलक में विभीषण को राम ने कौन सी लंका सौंपी जली हुई या मरम्मत कराई हुई जवाब उतना ही आसान- कि ताप पाकर सोना जलता नहीं बल्कि उसमें और निखार आता है इस वक्त लंका का ज़िक्र इसलिए कि सारी आग लंका पर ही लगी हुई है
आदिपुरुष नाम से एक फ़िल्म आई उसी फ़िल्मी भाषा में कहा जाए तो उसने हमारी श्रद्धा आस्था सबकी लंका लगा दी है दरअसल श्रीराम जन-जन के आदर्श हैं किसी भी आदर्श को आप लोगों के सामने हल्के रूप में प्रदर्शित नहीं कर सकते याद है जब लोग अपने घर से दरी- फट्टे ले- लेकर मैदान में जाते थे और अपना फट्टा बिछाकर रामलीला देखा करते थे उन राम लीलाओं में कभी राम के आदर्श रूप के साथ छेड़छाड़ नहीं की गई लोग हाथ जोड़कर वहाँ बैठा करते थे हाथ जोड़कर ही उठते भी थे
फिर नब्बे के दशक में रामानन्द सागर एक रामलीला लाए टीवी पर रामायण था उस महा सीरियल का नाम। लोग मेहमानों से कहा करते थे- हमारे घर आना हो तो सुबह नवबजे से पहले आना या फिर रामायण ख़त्म होने के बाद गलियों मोहल्लों सड़कों गाँवों क़स्बों और शहरों में नव बजे जैसे कर्फ़्यू लग जाता था कहीं कोई नज़र तक नहीं आता था। गाँवों की हमारी रामलीला को रामानन्द सागर ने ग़ज़ब की भव्यता प्रदान की
जिन्होंने कभी रामायण पढ़ी नहीं समझी नहीं थी वे भी राम के चरित्र के प्रशंसक हो गए थे आदिपुरुष के निर्माताओं निर्देशकों ख़ासकर संवाद लेखकों ने भी रामानन्द सागर जैसी ही अमरता चाही होगी लेकिन यह उल्टी पड़ गई क्या सोचकर और क्या मन में रखकर ऐसे संवाद गढ़े होंगे, जो कम से कम हिंदुस्तान में तो कभी भी किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किए जा सकतेसंवाद भी कैसे-कैसे कपड़ा तेरे बाप का तेल तेरे बाप का लंका लगा देंगे आख़िर ये क्या है जिस धार्मिक सोच वाली राजनीतिक पार्टी की उँगली पकड़कर चलना सीखा आज वही पार्टी या उसके घटक दलों द्वारा उसी उँगली-पकड़ लेखक के पुतले जलाए जा रहे हैं आपको कोई भी और किसी भी तरह का प्रश्रय प्राप्त क्यों न हो आप लोगों की भावना उनकी आस्था का मज़ाक़ नहीं उड़ा सकते उड़ाओगे तो वही होगा जो आज हो रहा है
फिर रामायण को आप आज के फ़िल्मी कल्चर के अनुसार ट्रांसलेट करना ही चाहते थे जो कि आपने किया भी तो उस पर अडिग रहते क्यों बार-बार अपने द्वारा फ़िल्माए गए दृश्यों को तोड़-मरोड़ रहे हैं क्यों अपने ही लिखे हुए संवादों को बदल रहे हैं कहीं ऐसा तो नहीं कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने और बाज़ार से मोटा पैसा कूटने के लालच में आपने राम जैसे आदर्श को हल्के रूप में पेश किया और चूँकि अब विवाद बढ़ गया है जो कि शायद आप पहले से ही चाहते थे तो बार-बार बदलाव किए जा रहे हैं ताकि जो एक बार आपकी फ़िल्म देख चुका है वो दूसरी बार इसलिए देखने आए कि जो बदलाव करने थे वे हुए भी हैं या नहीं
यह सच है कि जो कुछ भी लिखा हुआ था या है उसे फिर से नए रूप में लिखा जाता रहा है लिखा जाना भी चाहिए क्योंकि यहाँ आख़िरी कुछ नहीं होता जैसे- कई बार उत्सुकता जागती है कि कबीर ने आख़िरी चादर किसके लिए बुनी होगी यह विभास भी जागता है कि एक योगी की यात्रा में आख़िरी चरण कहाँ पड़े होंगे यह दुविधा भी घेरती है कि एक अवधूत या रागी का अन्तिम शबद कीर्तन आख़िर किस तम्बूरे पर हुआ होगा यह जो उत्सुकता और विभास और दुविधा जो है अपने अन्तिम छोर अपनी समाप्ति पर पहुँचकर भी आख़िरी कहाँ हो पाती है इसलिए बदलाव होना चाहिए। ट्रांसलेशन भी होना चाहिए लेकिन तथ्य या कथ्य के मूल भाव या भावना से छेडछाड नहीं होना चाहिए जो कि आदिपुरुष के निर्माताओं ने किया है
बदलाव कुछ अच्छे होते हैं कुछ बुरे बदलने को तो अब जुबां भी बदलने लग गई है आसमाँ भी रंग बदलता रहता है शब्द भी चमड़ी बदलते फिरते हैं मीठे पानी के घड़े भी बोतलों में सजने लगे हैंआदिपुरुष के निर्माताओं के जो संवाद हैं वे अच्छे बदलाव में नहीं गिने जा सकते अच्छे बदलाव ऐसे होने चाहिए जैसे शर्मीले-से छोटे-छोटे चम्पा के फूल हों जैसे जाड़े का दिन हो जिसमें उगने से पहले ही सूरज डूबने को होता है भूखे, मुस्तैद पंजों की तरह नहीं जिसमें इच्छाएँ अपने दांत पैने करके दहाड़ मार रही हों
बहरहाल इस फ़िल्म वाले अब लोगों की इच्छा के अनुरूप हर तरह से हर तरफ़ बदलाव करने को राज़ी हो गए हैं कहीं इस फ़िल्म के कारण सिनेमा घरों को ताले लगा दिए गए हैं कहीं इसके लेखक के पुतले फूंके जा रहे हैं और नेपाल जैसे देश में तो फ़िल्म ही प्रतिबंधित कर दी गई है नेपाल वालों का कहना है कि सीताजी का जन्म जिस जनकपुर में हुआ था वो हमारी नेपाली ज़मीन पर है भारत में सीता माता का जन्म दिखाना ग़लत है
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