रेलिया बैरन पिया के लिहे जाय रे-लाल शेखर सिंह
रेलिया बैरन पिया के लिहे जाय रे-लाल शेखर सिंह
मुंबई
मालिनी अवस्थी जी जब ठुमका लगा के गाती हैं तो सामने अड़सी पड़ी मध्यमवर्ग की जनता झूम जाती है । यही सुर जब चंदन तिवारी उठाती है तो आंख नम हो जाती है यह फर्क कलाकार के वर्गीय चरित्र पर खड़ा होता है । हमारा विषय यह नही है कि कलाकार के अंदरूनी सोच को खंगालें । यह लोकगीत है । आज एक लोकगीत इसी विषय पर कुमुद जी ने उठाया है अनंतकुमार दास साब ने मैथिल में सुनाया है । ' मुलुक ' छोड़ ' परदेश ' गए कमासुत कि वजह से मुलुक का गांव किस तरह भाँय भाँय करता है । कलकत्ता , बम्बई , आसनसोल , सूरत , अहमदाबाद में खड़ा गबरू बार बार पलट कर गांव लौट आता है , हकीकत में नही , खयालों में । हकीकत तो झोपड़पट्टी है । हकीकत और बहुत सारी जलालतें हैं । संडास पर खड़ी लंबी कतार है , बम्बे के पानी लेने का सिरफुटौवल है । खुद की बनी जली रोटी पर बुल्ल से चुवे आँसू की दो बूंद है ,ख्याल सामने खड़ा है गांव के ओसारे में मां के हाथ की मोटी हथपोइया रोटी और मक्खन का कटोरा है। तो कम्बख्त ! मुलुक छोड़ परदेश आया ही क्यों ? - नही बुझौगे बाबू । कजरी में सुनाए की फगुआ में ? ये गाना भर नही है , हमारी वाजिब तकलीफ़ है बाबू , नई नवेली मायके से बिआह के ससुराल आई है अकेले नही आई है असबाब के साथ सपना भी लेकर आई है । " सैंया झुलनी मंगाए द " एक ठो झुलनी बदे तरसाया , बलमुआ तोहरा पे राजी ना " । आपकी भाखा में ' डिमांड ' है । उसकी ख्वाहिश है जो आपकी सबसे प्रिय है । चोली , तेल , फुलेल , अलता , झुलनी बाजूबंद । पिया भागता है जल्दी है रेल से भागता है । ख्वाइस की पूर्ति में रेल आती है । यही रेल बैरन बन जाती है । ' बरसे पनिया , टिकस गली जाय हो , रेलिया बैरन । शहर में बैठा बुद्धिविलाषी अंग्रेजी में लिखता है । शहर में आबादी का अतिरिक्त दबाव । काम की तलाश में गांव से पलायन कर आये गंवई लोंगो से समय विकराल हो रही है । ( कम्बख्त ! तुम कहाँ से आये हो ? ) शहर को उकसा कर गांव के खिलाफ खड़ा दो । कम से कम खबर तो बनेगी । उधर शहर गांव को पीट पीट कर खदेड़ रहा है यहां लोक से दर्दउठ रहा है ।
चैत में चुनरी रंगइबो हो रामा , पिया घर अइहैं ।
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