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"गुरु पूर्णिमा विशेष" लेखक आदेश कुमार मिश्र असिस्टेंट प्रोफेसर

 "गुरु पूर्णिमा विशेष" लेखक आदेश कुमार मिश्र असिस्टेंट प्रोफेसर


कोल (जौनपुर) 


गुरु: गुरुतमो धाम



आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाये जाने वाले गुरुपूर्णिमा का सनातन धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है।माना जाता है कि महर्षि वेदव्यास का जन्म इसी दिन हुआ था।वेदव्यास के पिता महर्षि पराशर और माता धीवर दासराज की पुत्री सत्यवती थी। महर्षि व्यास ने ही महाभारत, 18 पुराण, 18 उपपुराणों  की रचना की।महाभारत के अनुशासन पर्व में कथित विष्णुसहस्त्रनाम में गुरु की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए व्यास जी ने भगवान विष्णु को गुरु: गुरुतमो धाम बताया है।यहां गुरु का अर्थ है कि सभी विद्याओं के उपदेश तथा जन्मदाता होने से भगवान विष्णु संसार के गुरु हैं,जबकि गुरुतम का अर्थ है कि ब्रह्मादि देवताओं को ब्रह्म विद्या प्रदान कारण करने के कारण विष्णु जी गुरुतम हैं। श्रीरामचरितमानस में महाकवि तुलसीदास जी ने गुरु के विषय में लिखा है-

"श्री गुरु पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।"

 अर्थात् श्री गुरु के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है जिसके स्मरण मात्र से ह्रदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है।मनुष्य का जीवन गुरुओं के प्रति श्रद्धा भाव रखने से धन्य होता है।बाल्यकाल से ही सर्वप्रथम माता गुरु, फिर पिता गुरु, उसके बाद अध्ययन काल के समय विद्या गुरु होते हैं।भागवत महापुराण के अनुसार जब राजा यदु ने भगवान दत्तात्रेय से उनके गुरु का नाम पूछा तो उन्होंने कहा, "आत्मा ही मेरा गुरु है, तथापि जीवन में मैंने 24 व्यक्तियों को गुरु मानकर शिक्षा ग्रहण की है, जिनमें पृथ्वी,जल,वायु,अग्नि,आकाश,हिरण,मछली,मधुमक्खी आदि हैं।देखा जाए तो प्रत्येक मनुष्य समाज के प्रत्येक वस्तु से औपचारिक और अनौपचारिक रूप से कुछ न कुछ ज्ञान ग्रहण करता है।गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए शिष्य को पूर्णरूपेण श्रद्धापूर्वक शिष्यत्व ग्रहण करना पड़ता है जिसे "श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम्" कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने भी उपदेशित किया है।महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन के मन में जब कुटुंब के प्रति मोहितजनित कार्पण्य भाव आया तो उस भ्रम को श्रीकृष्ण ने बिना शिष्यत्व ग्रहण किए नहीं दूर किए।अर्जुन स्वीकार करते हैं कि "शिष्यस्ते$हं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।" अर्थात् मैं आपकी शरण में हूं मेरे अज्ञान को नष्ट कीजिये।श्रीकृष्ण ने भी गुरु की भूमिका का निर्वहन करते हुए अर्जुन के भ्रम का नाश किया और श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया।मनुष्य के जीवन में आए भ्रम को दूर करने का समाधान श्रीकृष्ण करते हैं-

"तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः'

अर्थात् उस ज्ञान को तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ और गुरु के पास जाने का भाव अच्छा होना चाहिए उन्हें भली-भांति दंडवत् प्रणाम करने,उनकी सेवा करने और कपट छोड़कर तब सरलता पूर्वक प्रश्न करने से गुरु मानव के समस्या का समाधान करते हैं।बिना गुरु के व्यक्ति ज्ञानवान नहीं हो सकता। तुलसीदास जी कहते हैं 

"बिनु गुर होइ की ज्ञान' बिना गुरु के कोई जीव भवसागर को पार नहीं कर सकता चाहे वह ब्रह्मा जी और शंकर जी के ही समान क्यों ना हो।

गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।जौं बिरंचि संकर सम होई।

आज के समय में गुरु की शरणागति लेने के लिए अच्छी परख होना आवश्यक हो गया है। हनुमान जी को भी कालनेमि राक्षस गुरु बनकर दीक्षा देने का प्रस्ताव दिया किंतु बुद्धिमतां वरिष्ठं, ज्ञानिनामग्रगण्यम् स्वभाव वाले हनुमान जी ने कालनेमि के सत्य स्वरूप को जान लिया और उसका उद्धार किया ।यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज समाज में अनेक ऐसे उदाहरण प्राप्त हो रहे हैं जहां शिक्षक और शिष्य के संबंध कलंकित हो रहे हैं।विकृत मानसिकता वाले ऐसे लोग सनातन धर्म में वर्णित किए गए गुरु के मार्ग पर चले इसी कामना के साथ महर्षि वेदव्यास के वचन को स्मरण करते हुए उन्हें सश्रध्द भाव से प्रणामांजलि निवेदित करता हूं-

"श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।

आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्"

अर्थात् जो व्यवहार आप अपने साथ नहीं चाहते वैसा आचरण दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए।

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