क्या वाकई स्वतंत्र हैं हम? (स्वतंत्रता दिवस)
क्या वाकई स्वतंत्र हैं हम? (स्वतंत्रता दिवस)
लेखक लालशेखर सिंह
हर वर्ष मनाते हैं हम स्वतंत्रता दिवस। किसलिए? एक अनसुलझा-सा प्रश्न मुझे भीतर से बहुत बेचैन करता है। एक विशेष समुदाय की हठधर्मिता और अविवेक के कारण भारत देश के तीन टुकड़े होने के बाद, जो सबसे बड़ा भू-भाग हमें प्राप्त हुआ, उससे दुनिया ने जाना कि हिंदुस्तान आज़ाद हुआ। उस समय हमारे देश की वे विभूतियां, जो इस निर्णय से सन्तुष्ट थीं, उन्होंने कहा कि हम अपना संविधान स्वयं बनाएंगे। उन्होंने संविधान तो बनाया, लेकिन प्रशासन करने का कोई नया तंत्र नहीं बनाया। ऐसा तंत्र, जो मौलिक हो, जो स्वतंत्र मानसिकता का प्रतिबिम्ब हो और जो भारतीय संस्कृति एवं धर्म के अनुरूप हो। पुलिस तंत्र हो या प्रशासनिक तंत्र, आयकर हो या विक्रीकर तंत्र, न्यायतंत्र हो या शिक्षा की प्रणाली, उन सबमें छिटपुट बदलाव के अतिरिक्त सब कुछ वही रहा, जो अंग्रेज छोड़कर गए थे। कहने का तात्पर्य यह है कि ग़ुलामी की व्यवस्था वैसी की वैसी रही, जैसी अंग्रेज हमें ग़ुलाम रखने के लिए क्रियान्वयन में लाते थे।
जब कहा, स्वतंत्र देश, तो फिर इस देश में अंग्रेजों द्वारा बनाए गुलामी के कानून और नियमों के जटिल बन्धन आज तक क्यों बरकरार हैं? उदाहरण के लिए, शिक्षातंत्र को ले लीजिए। यदि हम वैदिक शिक्षा की ओर ध्यान दें, तो वहाँ शिक्षा का मूल अभिप्राय छात्र को स्वयं के प्रति, साथ ही समाज और देश के प्रति जागरूक बनाना था। पहले स्वयं का बोध, फिर विद्वत्ता और विज्ञान का बोध और अन्त में जीविकापार्जन के लिए सामाजिक क्षेत्रों में व्यावसायिक शिक्षा का ज्ञान। उस शिक्षा का उद्देश्य केवल प्रोफेसनल बनाना नहीं था, अपितु उसका उद्देश्य व्यक्ति में मानवता के संकुल गुणों को विकसित करना होता था। वहाँ ज़ोर था, *अज्ञान से मुक्ति तथा ज्ञान-विज्ञान-बोध से युक्ति*।
आज जो शिक्षा है, उसमें व्यक्ति लिख-पढ़ जाता है, कुशल प्रोफेसनल बन जाता है, लेकिन उसमें स्वयं, देश और समाज के प्रति जागरूकता का अभाव है। इस शिक्षा से व्यक्ति को न तो स्वयं का बोध होता है और न ही उसके भीतर देश और समाज के प्रति जागरूकता का उदय होता है। यह शिक्षा उसे अज्ञान और संकीर्ण स्वार्थ से रंग देती है। जैसा अंग्रेज चाहते थे, ठीक वैसा, वही ग़ुलामी। आज के कॉरर्पोरेट जगत में अतिशिक्षित लोग ऐसे ही ग़ुलाम बन गए हैं। शारीरिक गुलामी हो या न हो, लेकिन उनमें मानसिक दासता अवश्य भर गई है। क्या ऐसे तंत्र के लिए स्वतंत्र हुए थे हम? यही बात सरकार द्वारा लगाए करों पर लागू होती है। प्रशासन में बैठे नेता कहते हैं कि रामराज्य लाएंगे। जानना चाहता हूँ कि क्या राम के राज्य में राजा द्वारा मनमाने कर लगाकर निर्धन जनता को लूटा जाता था? हमारे धर्मग्रंथ महाभारत में राजा द्वारा जनता से *षड्भागमुपयुन्जन् यः प्रजा*, आय का षष्ठ भाग कर के रूप में प्राप्त करने का प्रावधान है, न कि मनमाने कर लगाकर जनता से धन बसूलने का। यदि जनता के ऊपर शुल्क और करों के रूप में पूरा का पूरा या उससे अधिक शुल्क एवं दण्ड के रूप में धन छीनने का प्रावधान हो, तो यह तो डाकूगिरी हुई, राज्य द्वारा स्वतंत्ररूप से खुल्लम-खुल्ला लूट हुई। यह स्वतंत्र होना कहाँ हुआ?
गहरे मन्थन की ज़रूरत है। मूलभूत बदलाव लाने होंगे। दासता की मानसिकता से उत्पन्न संविधान और प्रशासनिक व्यवस्था में क्रान्ति लानी होगी। हमें संसद और मंत्रिमण्डल में बाहुबलियों और अविवेकी लोगों की ज़रूरत नहीं है। हमें चाहिए वह संविधान, जो प्रबुद्ध लोगों को, प्रबुद्ध लोगों द्वारा चुनकर संसद में भेजे। भीड़तंत्र से जनप्रतिनिधि चुननेवाली व्यवस्था को निरस्त करना होगा। तभी सच्ची स्वतंत्रता उपलब्ध होगी।
जहाँ केवल चेहरे बदले हों, संविधान और प्रशासनिक तंत्र में आमूल परिवर्तन न हुए हों, तो क्या ऐसी ग़ुलामी की व्यवस्था को स्वतंत्र होना कहा जा सकता है? आज की व्यवस्था में ऊपर के बदलाव तो देखे जा सकते हैं, लेकिन भीतर कुछ भी नहीं बदला है। लोग शिक्षित हों या अशिक्षित, धनवान हों या निर्धन, उनके भीतर दासता का अंश ज्यों का त्यों है। चाहिए जनक जैसा राजा, जिसके पास विशाल और ताकतवर सेना न होते हुए भी त्रिलोक विजेता रावण उसके राज्य पर तिरछी नज़र उठाकर देखने की हिम्मत न कर सका। चाहिए राम जैसा तपस्वी राजा, जिसने चुनौती मिलने पर रावण जैसे महान शक्तिशाली राजा को उसके घर में घुसकर उसका और उसके समूचे वंश को नष्ट कर दिया। चाहिए कृष्ण जैसा राजा, जिसने धर्म का परचम फहराने के लिए शस्त्र से नहीं, कूटनीति से विरोधियों को धूल चटा दी। ऐसे शासकों के राज्य में ही सच्ची स्वतंत्रता का अनुभव होता है, न कि दंभ भरनेवाले भीरु, भ्रष्ट और अयोग्य नेताओं के प्रशासन में।
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